नव महीने व्यतीत होने पर माता मरुदेवी ने चैत्र कृष्ण नवमी के दिन सूर्योदय के समय मति-श्रुत-अवधि इन तीनों ज्ञान से सहित भगवान् को जन्म दिया। सारे विश्व में हर्ष की लहर दौड़ गई। इन्द्रों के आसन कम्पित होने से, कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि होने से एवं चतुर्निकाय देवों के यहां घंटा ध्वनि, शंखनाद आदि बाजों के बजने से भगवान का जन्म हुआ है ऐसा समझकर सौधर्म इन्द्र ने इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर चढ़कर नगर की प्रदक्षिणा करके भगवान को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर 1008 कलशों से क्षीरसमुद्र के जल से भगवान का जन्माभिषेक किया। अनन्तर वस्त्राभरणों से अलंकृत करके ‘ऋषभदेव’ यह नाम रखा। इन्द्र अयोध्या में वापस आकर स्तुति, पूजा, तांडव नृत्य आदि करके स्वस्थान को चले गये।
किसी समय सभा में नीलांजना के नृत्य को देखते हुए बीच में उसकी आयु के समाप्त होने से भगवान को वैराग्य हो गया। भगवान ने भरत का राज्याभिषेक करते हुए इस पृथ्वी को ‘भारत’ इस नाम से सनाथ किया और बाहुबली को युवराज पद पर स्थापित किया। भगवान महाराज नाभिराज आदि को पूछकर इन्द्र द्वारा लाई गई ‘सुदर्शना’ नामक पालकी पर आरूढ़ होकर ‘सिद्धार्थक’ वन में पहुंचे और वटवृक्ष के नीचे बैठकर ‘ नमः सिद्धेभ्यः 'मन्त्र का उच्चारण कर पंचमुष्टि केशलोंच करके सर्व परिग्रह रहित मुनि हो गये। उस स्थान की इन्द्रों ने पूजा की थी इसीलिये उसका ‘प्रयाग’ यह नाम प्रसिद्ध हो गया अथवा भगवान ने वहां प्रकृष्ट रूप से त्याग किया था इसीलिये भी उसका नाम प्रयाग हो गया था1। उसी समय भगवान ने छह महीने का योग ले लिया। भगवान के साथ आये हुए चार हजार राजाओं ने भी भक्तिवश नग्न मुद्रा धारण कर ली।
हजार वर्ष तपश्चरण करते हुए भगवान को पूर्वतालपुर के उद्यान में-प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे ही फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन केवलज्ञान प्रकट हो गया। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने बारह योजन प्रमाण समवसरण की रचना की। समवसरण में बारह सभाओं में क्रम से 1.सप्तऋद्धि समन्वित गणधर देव और मुनिजन 2. कल्पवासी देवियाँ 3. आर्यिकायें और श्राविकायें 4. भवनवासी देवियाँ 5. व्यन्तर देवियाँ 6. ज्योतिष्क देवियाँ 7. भवनवासी देव 8. व्यन्तर देव 9. ज्योतिष्क देव 10. कल्पवासी देव 11. मनुष्य और 12. तिर्यंच बैठकर उपदेश सुनते थे। पुरिमताल नगर के राजा श्री ऋषभदेव भगवान के पुत्र ऋषभसेन प्रथम गणधर हुए। ब्राह्मी भी आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी हो गयीं। भगवान के समवसरण में 84 गणधर, 84000 मुनि, 350000 आर्यिकायें, 300000 श्रावक, 500000 श्राविकायं, असंख्यातों देव देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच उपदेश सुनते थे।
जब भगवान की आयु चौदह दिन शेष रही तब कैलाश पर्वत ( अष्टापद ) पर जाकर योगों का निरोध कर माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के समय भगवान पूर्व दिशा की ओर मुँह करके अनेक मुनियों के साथ सर्वकर्मों का नाशकर एक समय में सिद्धलोक में जाकर विराजमान हो गये। उसी क्षण इन्द्रों ने आकर भगवान का निर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाया था, ऐसे ऋषभदेव जिनेन्द्र सदैव हमारी रक्षा करें। भगवान के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष व्यतीत हो जाने पर चतुर्थ काल प्रवेश करता है।